सिंहासन की छाया – तीसरा अध्याय
अदिति का शासन निर्दयी था। वह महल में लोहे की मुट्ठी और सुनहरी मुस्कान के साथ राज करती थी।
किसी भी विरोधी को वह एक ही रात में गायब करा देती, और उसकी जगह चुप्पी छोड़ जाती।
लेकिन सीमा के पार, एक जीर्ण-शीर्ण किले में, राजा विक्रम अब भी जिंदा था।
वह अब राजा नहीं, बल्कि निर्वासित योद्धा था—पर उसकी आँखों में वही तेज था, जो सिंहासन खोने के बाद और भी नुकीला हो गया था।
उसके साथ कुछ पुराने वफादार सैनिक थे, और कुछ वो लोग, जो अदिति की क्रूरता से भागकर उसके पास आ गए थे।
विक्रम रातों को आग के पास बैठकर कहता—
"उसने मेरा ताज छीना… अब मैं उसका सिर लूँगा।"
योजना महीनों तक बुनी गई।
अदिति को भरोसा था कि विक्रम मारा जा चुका है—क्योंकि यही अफवाह उसने खुद फैलवाई थी।
लेकिन महल के भीतर उसने महसूस करना शुरू किया कि कोई परछाईं उसे देख रही है, उसके आदेशों से पहले ही उसके कदमों का अंदाज़ा लगा रही है।
एक रात, जब महल में नृत्य-समारोह चल रहा था, और अदिति सोने के आभूषणों में डूबी थी, महल के दरवाज़े अचानक टूट गए।
सैकड़ों सैनिक, काले झंडों के साथ, अंदर घुस आए—उनके बीच विक्रम था, पुराने युद्ध-कवच में, और उसके चेहरे पर केवल ठंडी दृढ़ता।
अदिति ने तलवार उठाई, लेकिन विक्रम ने धीरे से कहा—
"जिस ज़हर से तुमने मेरा साम्राज्य छीना था… उसी ज़हर से अब तुम्हारा अंत होगा।"
लड़ाई लंबी नहीं चली।
महल के भीतर, विक्रम ने अदिति को उसी सिंहासन पर बाँध दिया जिस पर कभी वह खुद बैठा था।
"ये ताज सिर्फ सिर पर नहीं, आत्मा पर भी भारी होता है," उसने कहा, और फिर उसके सामने वह प्याला रखा—जिसमें वही ज़हर था जिसने आर्यन को मारा था।
अदिति की मुस्कान आख़िरी क्षण तक रही, जैसे वह जानती हो कि इस खेल में असल जीत किसी की नहीं होती—सिर्फ अगला खिलाड़ी आता है।
सिंहासन फिर विक्रम के पास था।
लेकिन महल की दीवारें अब फुसफुसाती थीं—शक्ति का खेल कभी खत्म नहीं होता… सिर्फ चेहरे बदलते हैं।
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