सिंहासन की छाया – चौथा अध्याय | Royal Betrayal Epic in Hindi Part 4

 सिंहासन की छाया – चौथा अध्याय




राजा विक्रम फिर से अपने सोने के सिंहासन पर था।

महल में पुराने झंडे लौट आए, वफादार दरबारी फिर से उसके सामने झुकने लगे।

लेकिन सत्ता के साथ वही पुरानी बेचैनी भी लौट आई—यह एहसास कि हर मुस्कान के पीछे एक छिपा हुआ खंजर है।


महल के गलियारों में अब एक नई शक्ल उभरी—राजकुमार समर, विक्रम का अपना बेटा।

समर जवान था, तेज़ था, और महत्वाकांक्षा से भरा हुआ।
वह युद्ध कला में निपुण था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब ठंडापन था, जो विक्रम को बेचैन करता था।


एक शाम, जब दरबार खत्म हुआ, विक्रम ने समर को बुलाकर कहा—
"बेटा, मैंने अपने जीवन में कई धोखे देखे हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे सीखो—शक्ति सिर्फ तलवार से नहीं, दिमाग से चलती है।"


समर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, "और कभी-कभी… शक्ति हासिल करने के लिए अपने ही गुरु को गिराना पड़ता है।"


विक्रम ने इसे मज़ाक समझकर टाल दिया, लेकिन उसी रात, उसने देखा कि समर कुछ पुराने दरबारियों के साथ गुप्त मुलाकात कर रहा था—वही लोग जो अदिति के समय उसकी तरफ थे।


अगले कुछ हफ्तों में, विक्रम के कानों तक अजीब अफवाहें पहुँचीं—कि वह बूढ़ा हो चुका है, कि अब उसकी सोच धीमी हो गई है, कि राज्य को नए खून की ज़रूरत है।

ये बातें जनता में फैलाने वाला कोई और नहीं, बल्कि उसका अपना बेटा था।


फिर एक दिन, विक्रम को अपने कमरे में एक सुनहरी प्याली मिली—अंदर कुछ बूंदें, और उसकी गंध पहचानते ही उसका खून जम गया।

वही ज़हर… वही खेल… बस इस बार प्याला उसके लिए था।


उसने प्याला नीचे रखा और अपने आप से बुदबुदाया—
"शक्ति का चक्र सच में कभी खत्म नहीं होता… यहां तक कि खून भी इसकी प्यास बुझा नहीं पाता।"


महल की दीवारों के पार, एक और तूफ़ान उठ चुका था—और इस बार, गद्दार किसी और नहीं… बल्कि उसका अपना वारिस था।


पाँचवां अध्याय

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