रिश्तों की बुनियाद ? - आरोही
ज्योतिर्
सुमित्रा देवी के घर में खुशी की लहर थी। उनका इकलौता बेटा, विकास, शादी के बंधन में बंध चुका था और उनकी बहू, आकांक्षा, इस घर की नई सदस्य बन गई थी। सुमित्रा देवी ने भी मन ही मन
सोचा था कि अब घर में एक बेटी आ गई है, जो उनके साथ हर
सुख-दुख में खड़ी रहेगी।
शादी के शुरुआती दिन हंसी-खुशी बीते। आकांक्षा भी चाहती थी कि वह अपनी सास के
करीब आए, उन्हें समझे और उनके दिल में अपनी जगह बना ले। लेकिन
जैसे-जैसे समय बीता, सुमित्रा देवी के मन में एक अजीब-सी बेचैनी आने लगी।
उन्हें लगने लगा कि उनका बेटा, जो पहले हर
छोटी-बड़ी बात में उनसे सलाह लेता था, अब आकांक्षा की
राय को भी महत्व देने लगा है। वह थोड़ा-थोड़ा बदलने लगा था। और यही बदलाव उन्हें
अखरने लगा।
सुमित्रा देवी के मन में यह डर बैठ गया कि कहीं उनकी बहू उनका बेटा उनसे दूर न
कर दे। इस डर ने धीरे-धीरे उनके व्यवहार को बदल दिया।
अब वे हर समय बहू पर नज़र रखतीं—
- अगर आकांक्षा और विकास
हंसकर बातें कर रहे होते, तो उन्हें लगता कि वे
उनके बारे में ही बात कर रहे हैं।
- अगर आकांक्षा थककर
आराम करने बैठती, तो उन्हें लगता कि बहू ज़िम्मेदार नहीं है।
- अगर आकांक्षा ऑफिस के काम में व्यस्त होती, तो उन्हें लगता कि वह घर के कामों से बचने का बहाना बना रही है।
धीरे-धीरे वे अपने बेटे से भी बहू की शिकायतें करने लगीं—
"आकांक्षा को घर के कामों में मन ही नहीं लगता। पहले तू कितना मेरी बात मानता
था, अब बहू के हिसाब से चलने लगा है।"
बेटा भी यह सब सुन-सुनकर कभी-कभी झुंझला जाता और आकांक्षा से बहस करने लगता।
सुमित्रा देवी को शायद इस तरह बहू की गलतियां गिनाने में ही संतोष मिलने लगा
था।
- जब रिश्तेदार आते, तो वे हंसते-हंसते कहतीं—"हमारी बहू को घर का कोई
काम तो आता नहीं, बस मोबाइल चलाने में तेज़ है!"
- पड़ोसियों से
कहतीं—"हमने तो बेटे को बहू की खातिर खो ही दिया, अब हमारी कोई पूछ नहीं!"
- और जब बेटे को समझाने
का वक्त आता, तो कहतीं—"हमारे ज़माने में बहुएँ माँ-बाप की
सेवा करती थीं, अब तो बेटे पर कब्जा कर लेती हैं!"
विकास भी माँ की बातों में आकर कभी-कभी आकांक्षा पर शक करने लगा। वह सोचने लगा
कि शायद उसकी माँ सही कह रही हैं।
आकांक्षा, जो शुरुआत में इन बातों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश कर रही
थी, धीरे-धीरे अंदर से टूटने लगी।
अब घर का माहौल पहले जैसा नहीं रहा।
- आकांक्षा ने सास के
सामने बैठना कम कर दिया।
- वह अपनी भावनाएँ किसी
से साझा नहीं करती थी।
- विकास और आकांक्षा के
बीच छोटी-छोटी बातों पर बहस होने लगी।
सुमित्रा देवी को यह देखकर अजीब-सी खुशी मिलती थी कि उनका बेटा अभी भी उनकी
सुनता है। लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि इस घर में बढ़ते तनाव की असली वजह क्या
थी।
समय बीतता गया। कुछ वर्षों बाद, सुमित्रा देवी
को एक गंभीर बीमारी हो गई। अब उन्हें सहारे की ज़रूरत थी। विकास नौकरी के कारण
अक्सर बाहर रहता था, और घर में सिर्फ आकांक्षा थी, जो उनकी देखभाल
कर सकती थी।
लेकिन इस बार, आकांक्षा ने कोई पहल नहीं की।
- जब डॉक्टर के पास जाना
था, तो उसने कहा—"आपका बेटा है, वही ले जाएगा।"
- जब दवा का वक्त हुआ, तो उसने कुछ नहीं कहा।
- जब रात में सुमित्रा
देवी को तकलीफ हुई, तो आकांक्षा अपने कमरे में रही।
सुमित्रा देवी ने अब महसूस किया कि जो बहू कभी हर काम में आगे रहती थी, वही अब उनकी तरफ ध्यान तक नहीं दे रही थी।
एक दिन, उन्होंने हिम्मत जुटाकर आकांक्षा से पूछा—"बेटा, क्या तुझे मुझसे कोई शिकायत है?"
आकांक्षा ने शांत स्वर में उत्तर दिया—
"माँजी, मैंने हमेशा आपको अपना माना, लेकिन आपने
मुझे कभी अपनाया ही नहीं। मैंने आपको खुश करने की कोशिश की, पर आपने मेरी हर बात में कमी निकाली। जब मुझे आपके प्यार की ज़रूरत थी, तब आपने मेरा साथ नहीं दिया। अब जब आपको मेरी ज़रूरत है, तो मैं क्या करूँ?"
यह सुनकर सुमित्रा देवी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने पहली बार सोचा—क्या
वाकई मैं ही इस रिश्ते को खराब करने की असली वजह थी?
इस कहानी से एक महत्वपूर्ण सीख मिलती है—
घर की खुशियों को बनाए रखने में सबसे बड़ी भूमिका सास की होती है। अगर वह बहू
को बेटी मानकर चलें, तो घर स्वर्ग बन सकता है। लेकिन अगर जलन और असुरक्षा घर कर
जाए, तो वही घर नर्क बन सकता है।
जो सास अपनी बहू को अपना नहीं पाती, वह धीरे-धीरे
अपने बेटे को भी खो देती है। और जब उसे बहू के सहारे की ज़रूरत होती है, तब वही बहू सबसे दूर चली जाती है।
रिश्ते अपनाने से मजबूत होते हैं, जलन से नहीं। 💖
अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी और सोचने पर मजबूर किया, तो इसे ज़रूर साझा करें। रिश्तों में प्यार और समझदारी लाने के लिए पहल करें! 😊
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